इतिहासकारों ने अहलावत गोत्र का विवेचन इस प्रकार किया है
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ब्रह्मा – अव्यक्त = परमात्मा तथा प्रकृति से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई । वे सृष्टि के आदि में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न हुए थे अतः उनका एक नाम स्वयम्भू है । उनके सांसारिक माता-पिता नहीं थे । परमात्मा पिता और प्रकृति उनकी माता थी । ब्रह्मा से मरीचि, मरीचि से कश्यप, कश्यप से विवस्वान्, विवस्वान् से वैवस्त मनु और उससे इक्ष्वाकु का जन्म हुआ । वैवस्त मनु प्रथम प्रजापति था । विवस्वान् का अर्थ सूर्य है । वैवस्त मनु के सन्तान इक्ष्वाकु आदि के वंशज राम आदि सूर्यवंशी राजा कहाते हैं ।
ब्रह्मा के छः मानस-पुत्र भी विख्यात हैं – १. मरीचि, २. अत्रि, ३. अंगिरा, ४. पुलस्त्य, ५. पुलह, ६. क्रतु । ब्रह्मा के मरीचि नामक पुत्र से कश्यप और उनसे समस्त प्रजाएं उत्पन्न हुईं ।
ब्रह्मा के एक पुत्र दक्ष (प्रजापति) भी थे । उस दक्ष प्रजापति की अदिति, दिति, दनु, काला, दनायु, सिंहिका, क्रोधा, प्राधा, विश्वा, विनता, कपिला, मुनि और कद्रू – ये तेरह कन्याएं थीं । दक्ष की पुत्री अदिति से उत्पन्न हुए धाता, मित्र, अर्यमा, इन्द्र, वरुण, अंश, भग, विवस्वान्, पूषा, सविता, त्वष्टा और विष्णु – ये बारह देव आदित्य के नाम से प्रसिद्ध हैं । दक्ष प्रजापति की पुत्री दिति के ही पुत्र दैत्य (राक्षस) कहाते हैं किन्तु उसका एक पुत्र हिरण्यकशिपु है । उसके प्रह्लाद, संह्लाद, अनुह्लाद, शिवि और वाष्कल – ये पांच पुत्र हुए । इनमें प्रह्लाद देवों में गिना जाता है, राक्षसों में नहीं । उस प्रह्लाद के विरोचन, कुम्भ और निकुम्भ नामक तीन पुत्र हुए । विरोचन का पुत्र महाप्रतापी बलि हुआ ।
दक्ष प्रजापति की अदिति से विवस्वान् और उससे मनु और यम उत्पन्न हुए । इस मनु के वेन, धृष्णु, नरिष्यन्त, नाभाग, इक्ष्वाकु, कारूष, शर्याति, पृषध्र और नाभागारिष्ट नामक नौ पुत्र हुए और इला नामक कन्या हुई । इसका अत्रि के पोते तथा प्रजापति सोम के पुत्र बुध के साथ विवाह हुआ । उससे पुत्र पुरूरवा ऐल का जन्म हुआ । ये प्रजापति सोम के सन्तान होने से चन्द्रवंशी राजा कहलाए । सोम का अर्थ चन्द्र है ।
पुरूरवा (ऐल) से आयु, धीमान्, अमावसु, विश्वायु – ये चार पुत्र हुए । आयु का नहुष और नहुष का ययाति नामक पुत्र हुआ । ये जम्बूद्वीप के सम्राट् बने । आज का एशिया जम्बूद्वीप है । इस जम्बूद्वीप में अनेक देश थे जिनमें एक का नाम इलावृत देश था । इस देश का नाम दक्ष प्रजापति की पुत्री इला के क्षत्रियपुत्रों से आवृत होने के कारण इलावृत रखा गया । आज यह देश मंगोलिया में अतलाई नाम से जाना जाता है । अतलाई शब्द इलावृत का ही अपभ्रंश है । सम्राट् ययाति के वंशज क्षत्रियों का संघ भारतवर्ष से जाकर उस इलावृत देश में आबाद हो गया । उस इलावृत देश में बसने के कारण क्षत्रिय ऐलावत (अहलावत) कहलाने लगे ।
इलावृत देश में अहलावत नामक क्षत्रियों का संघ (गण) प्रजातंत्र था । इस देश का नाम महाभारत काल में ‘इलावृत’ ही था । जैसा कि महाभारत में लिखा है कि श्रीकृष्ण जी उत्तर की ओर कई देशों पर विजय प्राप्त करके ‘इलावृत’ देश में पहुंचे । वह देवताओं का निवास-स्थान है । भगवान् श्रीकृष्ण ने देवताओं से ‘इलावृत’ को जीतकर वहां से भेंट ग्रहण की ।
अहलावत सोलंकी शासकों की दो शाखाएं थीं । पहली शाखा ने सन् ५५० से ७५३ तक दक्षिण-भारत में राज्य किया । इनकी राजधानी बादामी (वातापी) थी । इसकी दूसरी शाखा ने ९७३ ई० से ११९० तक दक्षिण भारत में राज्य किया । इनकी राजधानी कल्याणी थी ।
जब अहलावत वंश का शासन दक्षिण में दुर्बल हो गया तब ये वहां से चलकर उत्तर भारत की ओर आ गए और जहां-तहां बस गए । विक्रमादित्य षष्ठ के वंशज बांसलदेव अहलावत के साथ इसी वंश का एक दल दक्षिण से चलकर बीकानेर राज्य की प्राचीन भूमि ददरहेड़ा में आकर बस गया । बीकानेर पर राठौड़ राज्य स्थापित होने से पहले ही यह अहलावत संघ वहां से चलकर हरयाणा प्रान्त के भिवानी जिले के कालाबडाला नामक स्थान में कुछ दिन रहा और वहां से चलकर रोहतक जिले में आकर बस गया । सबसे पहले उन्होंने यहां शेरिया ग्राम बसाया । चौ० डीघा (उपनाम – फेरू) ने कुछ दिन शेरिया में रहकर पीछे डीघल गांव बसाया । इसी तरह गोच्छी और बहराणा आदि ग्राम बसाए गए । रोहतक जिले के डीघल, शेरिया, गोच्छी, धान्दलाण, लकड़िया, गांगटान, भम्बेवा, बहराणा, गूगनाण, मिलवाण – ये सब अहलावत गोत्र के ग्राम हैं । अधिक जानकारी के लिए कप्तान दिलीपसिंह अहलावत द्वारा लिखित ‘जाटवीरों का इतिहास’ नामक ग्रन्थ पढ़ें ।
उद्धरण – पुस्तक – पं० जगदेवसिंह सिद्धान्ती जीवन चरित (पृष्ठ 24-29)
लेखक – आचार्य सुदर्शनदेव आचार्य
मुद्रक – वेदव्रत शास्त्री, आचार्य प्रिंटिंग प्रैस, गोहाना मार्ग, रोहतक (1990 ई०)
Contribution – Dndeswal 15:08, 8 March 2012 (EST)
दलीप सिंह अहलावत द्वारा अहलावत गोत्र का इतिहास
दलीप सिंह अहलावत[8] लिखते हैं:
ब्रह्मा से आठवीं पीढ़ी में चन्द्रवंशी नहुषपुत्र सम्राट् ययाति हुए। ये जम्बूद्वीप के सम्राट् थे। जम्बूद्वीप आज का एशिया समझो (देखो अध्याय 1, जम्बूद्वीप)। इस जम्बूद्वीप में कई देश (वर्ष) थे जिनमें से एक का नाम इलावृत देश था। जिस देश के बीच में सुमेरु पर्वत है, जिस पर वैवस्वत मनु निवास करते थे और जो जम्बूद्वीप के बीच में है, उसका नाम इलावृत देश था। आज यह देश मंगोलिया में अलताई नाम से कहा जाता है। यह्ह अलताई शब्द इलावृत का ही अपभ्रंश है। (“वैदिक सम्पत्ति”, आर्यों का विदेशगमन, पृ० 423, लेखक पं० रघुनन्दन शर्मा साहित्यभूषण)।
ययातिवंशज क्षत्रिय आर्यों का संघ (दल) भारतवर्ष से जाकर इस इलावृत देश में आबाद हुआ था। चन्द्रवंशज क्षत्रिय आर्यों का वह संघ इलावृत देश में बसने के कारण उस देश के नाम से अहलावत कहलाया*। यह अध्याय 1 में लिख दिया गया है कि वंश (गोत्र) प्रचलन व्यक्ति, देश या स्थान आदि के नाम पर हुए। देश या स्थान के नाम पर प्रचलित वंशों की सूची में अहलावत वंश भी है (देखो प्रथम अध्याय)।
बी० एस० दहिया के लेख अनुसार – “मध्य एशिया में बसे हुए आर्यों का देश एलावर्त था जिसके नाम से वे अहलावत कहलाये जो जाटवंश (गोत्र) है। ययाति स्वयं एला कहलाता था1।”
इलावृत देश में अहलावत क्षत्रियों का संघ (गण) प्रजातंत्र था। इनके इस देश का नाम महाभारतकाल में भी इलावृत ही था। इसके कुछ उदाहरण निम्न प्रकार से हैं –
यादवों की दिग्विजय – श्रीकृष्ण जी उत्तर की ओर कई देशों पर विजय पाकर इलावृत
- भाषाभेद से इलावृत शब्द अहलावत कहलाया।
1. जाट्स दी ऐन्शन्ट रूलर्ज पृ० 10, लेखक बी० एस० दहिया आई० आर० एस०।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-201
देश में पहुंचे। यह देवताओं का निवास स्थान है। वहां जम्बूफल है जिसका रस पीने से कोई रोग नहीं होता है। भगवान् श्रीकृष्ण जी ने देवताओं से पूर्ण इलावृत को जीतकर वहां से भेंट ग्रहण की1
महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के अवसर पर पाण्डवों की दिग्विजय – “अर्जुन उत्तर दिशा में बहुत से देशों को जीतकर इलावृत देश में पहुंचे। वहां उन्होंने देवताओं जैसे देवोपम, शक्तिशाली दिव्य पुरुष तथा अप्सराओं के साम स्त्रियां देखीं। अर्जुन ने उस देश को जीतकर उन पर कर लगाया”2।
अहलावत क्षत्रिय आर्यों की घटनाओं और उनका अपने देश भारतवर्ष में लौट आने के विषय में कोई प्रमाणित जानकारी नहीं मिलती जो कि खोज का विषय है।
अहलावत जाटों का भारतवर्ष से बाहर विदेशों में रहने का थोड़ा सा ब्यौरा निम्नप्रकार से है –
- वृहत् संहिता के लेखक वराहमिहिर ने एक प्रकरण में अहलावतों को [Takshasila|तक्षशिला]] और पुशकलावती के लोगों, पौरवों (पौरव जाट), पंगालकों (पंघल जाट, मद्रा (मद्र जाट), मालवों (मालव/ मल्ल जाट) के साथ लिखा है3। सम्भवतः ये सब लोग भारतवर्ष की उत्तर-पश्चिम सीमा पर थे।
- राजतरंगिणी में कल्हण ने लिखा है कि अहलावत और बाना (दोनों जाटगोत्र) द्वारपाल (शत्रु के आने के रास्ते पर रक्षक) थे4। इससे यह बात तो साफ है कि ये लोग शत्रु से पहली टक्कर लेने वाले सबसे आगे थे। सम्भवतः ये भारतवर्ष की सीमा पर रक्षक थे।
- भारतीय शक और कुषाणों के वस्त्र तथा शस्त्र, सरमाटियन्ज् यानी एलन्ज की कब्रों से मिले वस्त्र, शस्त्रों के समान थे। असल में यह एलन् शब्द एला शब्द से निकला है जो कि अहलावत जाट हैं। इन सब के पहनने के वस्त्र, लम्बी बूट (जूते), लम्बा कोट, पतलून और टोप एक समान थे। भारतवर्ष के शुरु के गुप्ट सम्राटों, जो धारण जाटगोत्र के थे, के सिक्कों (मुद्रा) पर भी यही पहनावा पाया गया है जो बाद में धोती बांधने लगे थे5। सरमाटियन्ज् या एलन्ज नामक स्थान लघु एशिया में है। इससे साफ है कि अहलावत जाट वहां रहे हैं और वहां राज्य किया है, युद्ध किए हैं। इनकी प्रसिद्धि के कारण ही तो उस स्थान का नाम एलन्ज पड़ा था।
अहलावत जाट अपने देश भारतवर्ष लौट आए। इसका पूर्ण ब्यौरा तो प्राप्त नहीं है परन्तु कुछ बातें इस प्रकार से हैं –
1,2. देखो प्रथम अध्याय इलावृत देश प्रकरण।3. बृहत् संहिता का हवाला देकर, बी० एस० दहिया आई० आर० एस० ने अपनी पुस्तक “जाट्स दी एन्शन्ट रूलर्ज” के पृ० 171 पर लिखा है।4. जाट्स दी ऐन्शन्ट रूलर्ज पृ० 224, लेखक बी० एस० दहिया आई० आर० एस०।5. जाट्स दी ऐन्शन्ट रूलर्ज पृ० 54, लेखक बी० एस० दहिया आई० आर० एस०।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-202
- इलावृत प्रदेश में निवास करने वाले आर्यों को ऐल नाम से पुकारा गया है और ये लोग चित्तराल के रास्ते से भारतवर्ष में आए1।
- एक समय लगभग पूरे एशिया तथा यूरोप पर जाटवीरों का राज्य था। ईसाई-धर्मी तथा मुस्लिम-धर्मी लोगों की शक्ति बढ़ने के कारण जाटों की हार होती गई जिससे ये लोग समय-समय पर अपने पैतृक देश भारतवर्ष में आते रहे और सदियों तक आये। अधिकतर ये लोग भारतवर्ष की पश्चिमी सीमा की घाटियों से आये (विशेषकर खैबर और बोलान घाटी से)। इसका पूरा वर्णन अगले अध्याय में किया जाएगा। सम्भवतः अहलावत जाट भी इन्हीं रास्तों से अपने देश भारतवर्ष में लौट आये।
यह नहीं कहा जा सकता कि ये अहलावत जाट लोग कितने विदेशों में रह गये और कितने भारतवर्ष में आ गये। यहां आने के बाद पंजाब में और फिर राजस्थान, मालवा, गुजरात, महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में इनका निवास तथा राज्य स्थापित करने का कुछ ब्यौरा मिलता है जो निम्नलिखित है ।
कुछ लेखकों ने अहलावतों को अहलावत सोलंकी लिखा है2। चालुक्य चन्द्रवंशी जाट हैं जिनको बाद में सोलंकी3 नाम से पुकारा गया। राजपूत संघ बनने पर उन्होंने भी सोलंकी नाम धारण कर लिया था। परन्तु याद रहे कि दसवीं सदी से पहले इनका नाम नहीं चमका था। ग्यारहवीं शताब्दी में राजपूतों ने राज्य स्थापित करने शुरु कर दिये थे। दक्षिण में अहलावतों की पदवी सोलंकी रही।
अहलावत सोलंकी वंश का दक्षिण में राज्य
अहलावत सोलंकी जाटवंश के शासकों की दो शाखायें कही गई हैं। पहली शाखा ने सन् 550 ई० से 753 ई० तक लगभग 200 वर्ष तक दक्षिण भारत में राज्य किया। इनकी राजधानी बादामी4 (वातापी) थी। दूसरी शाखा ने सन् 973 ई० से 1190 ई० तक लगभग 200 वर्ष तक दक्षिण भारत में राज्य किया। इनकी राजधानी कल्याणी थी5।
वातापी या बादामी के शासक (सन् 550 ई० से 753 ई० तक)6
इस वंश के पहले दो शासक जयसिंह और रणराजा थे। किन्तु बादामी राज्य का संस्थापक पुलकेशिन प्रथम था जो इस सोलंकीवंश का तीसरा राजा हुआ। विन्सेन्ट स्मिथ के लेख अनुसार, “चालुक्यवंश दक्षिण में एक प्रसिद्ध वंश था जिसका संस्थापक पुलकेशिन प्रथम था जिसने इस राज्य को छटी शताब्दी के मध्य में स्थापित किया था।”
1. भारत भूमि और उसके निवासी पृ० 251, लेखक सी० वी० वैद्य; जाट इतिहास पृ० 7 लेखक ठा० देशराज।2. जाट इतिहास उर्दू पृ० 206 लेखक ठा० संसारसिंह; क्षत्रिय जातियों का उत्थान, पतन एवं जाटों का उत्कर्ष पृ० 363; लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री, जाट इतिहास पृ० 86, लेखक रामसरूप जून। जाट इतिहास इंग्लिश पृ० 69, लेखक लेफ्टिनेन्ट रामसरूप जून; सर्वखाप रिकार्ड, शोरम गांव जिला मुजफ्फरनगर।3. जेम्स टॉड ने चालूक्य-सोलंकी वंश की गणना 36 राज्यकुलों में की है।4. वातापी (बादामी) – यह गोदावरी नदी और कृष्णा नदी के बीच पश्चिमी तट के निकट है।5. कल्याणी – यह वातापी से उत्तर-पूर्व वरंगल के निकट है।6. हिन्दुस्तान की तारीख (उर्दू) पृ० 377.
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-203
1: पुलकेशिन प्रथम ने वातापी को जीतकर अपने राज्य की राजधानी बनाई। इसी खुशी में उसने एक अश्वमेध यज्ञ किया। (अश्वमेध – राजा न्याय धर्म से प्रजा का पालन करे, विद्यादि का देनेहारा, यजमान और अग्नि में घी आदि का होम करना अश्वमेध कहलाता है – सत्यार्थप्रकाश एकादश समुल्लास पृ० 188)।
2: पुलकेशिन प्रथम की मृत्यु के पश्चात् उसके दो पुत्रों कीर्तिवर्मन और मंगलेश ने अपने शत्रुओं से युद्ध किए। मंगलेश ने अपनी राजधानी बादामी में विष्णु का एक सुन्दर मंदिर बनवाया।
3: पुलकेशिन द्वितीय (सन् 608 ई० से 642 ई०) – इस वंश का सबसे प्रसिद्ध और शक्तिशाली सम्राट् पुलकेशिन द्वितीय था1। चीनी यात्री ह्यूनत्सांग (हुएनसांग) ने अपनी यात्रा समय लिखित पुस्तक “सि-यू-की” में लिखा है कि “पुलकेशिन द्वितीय बड़ा प्रतापी सम्राट् था। उसका राज्य नर्मदा के दक्षिण में बंगाल की खाड़ी से अरब सागर तक और दक्षिण में पल्लव (जाटवंश) राज्य की सीमाओं कांची तक फैला हुआ था2। विदेशी राजा उसका मान करते थे। उसके दरबार में फारस का राजदूत आया था। उसके जलपोत व्यापार के लिए ईरान और दूसरे देशों में जाते थे। उसके राज्य के निवासी बड़े निडर और युद्धप्रिय थे।” पुलकेशिन के चित्रित दरबार में फारस के राजदूत का चित्र आज भी अजन्ता की गुफाओं में देखा जा सकता है*।
उत्तरी भारत का शक्तिशाली सम्राट् हर्षवर्धन (606 ई० से 647 ई० तक) वसाति या वैस जाट गोत्र का था। उसने सन् 620 ई० में पुलकेशिन द्वितीय पर आक्रमण किया। दोनों सेनाओं का युद्ध नर्मदा के पास हुआ। हर्ष की असफलता हुई जिसके कारण पुलकेशिन द्वितीय की शक्ति और मान में अधिक वृद्धि हुई3। पुलकेशिन द्वितीय ने पल्लव (जाटगोत्र) राजा महेन्द्रवर्मन को हराया और बढ़ता हुआ कांची तक जा पहुंचा। परन्तु महेन्द्रवर्मन के पुत्र नरसिंह वर्मन ने इस हार का बदला लिया। सन् 642 ई० में उसने बादामी पर आक्रमण किया जिसमें पुलकेशिन द्वितीय हार गया और मारा गया।
4: विक्रमादित्य प्रथम – पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र विक्रमादित्य प्रथम सन् 642 ई० में राजगद्दी पर बैठा। इसने पल्लवों को हराया और उनकी राजधानी कांची तक
1. सर्वखाप पंचायत का रिकार्ड जो सर्वखाप पंचायत के मंत्री चौ० कबूलसिंह ग्रा० व डा० शोरम जिला मुजफ्फरनगर (उ० प्र०) के घर में है, में लिखा है कि पुलकेशिन सम्राट् जाट अहलावत गोत्र का था।2. भारत का इतिहास हरयाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड, भिवानी पृ० 81.
- – उस समय ईरान का राजा खुसरो द्वितीय था (590-628 ईस्वी)। खुसरो द्वितीय का दूतमण्डल पुलकेशिन द्वितीय के दरबार में आया था। उसके दरबार में भी पुलकेशिन द्वितीय ने एक दूतमण्डल भेजा था। (मध्य एशिया में भारतीय संस्कृति पृ० 41, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार)।
3. भारत का इतिहास, हरयाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड, भिवानी पृ० 81; भारत का इतिहास प्री-यूनिवर्सिटी कक्षा के लिए, पृ० 153, लेखक अविनाशचन्द्र अरोड़ा।नोट – महाराजा पुलकेशिन द्वितीय का एक शिलालेख मिला है जिस पर लिखे लेख का वर्णन, पं० भगवद्दत बी०ए० द्वारा रचित भारतवर्ष का इतिहास द्वितीय संस्करण पृ० 205 पर किया गया है।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-204
अधिकार कर लिया। उसने दक्षिण के चोल, पांड्य वंश चीर वंश को भी जीत लिया था।
5: विक्रमादित्य द्वितीय – यह विक्रमादित्य प्रथम का पौत्र था। इसने पल्लव राजा नन्दीवर्मन जो हराकर उसकी राजधानी कांची पर अधिकार कर लिया। इसकी मृत्यु के बाद यह वंश कमजोर होता चला गया।
6: कीर्तिवर्मन द्वितीय – यह इस वंश का अन्तिम राजा था। इसको सन् 753 ई० में राष्ट्रकूट वंश (राठी) के राजा वन्तीदुर्ग ने हरा दिया और इसका राज्य छीन लिया। इस तरह से बादामी के शासकों का अन्त हो गया1।
सन् 754 ई० से लेकर सन् 972 ई० अर्थात् लगभग 200 वर्ष के अन्तराल में इन अहलावत वंशज जाटों के गौण राज्य स्थापित रहे जिनका ऐतिहासिक महत्त्व नगण्य है।
अहलावत वंश के शासकों का कल्याणी पर राज्य (सन् 973 से 1190 ई० तक2)।
- 1. तल्प द्वितीय – इसने सन् 973 ई० में राष्ट्रकूट वंश (Rathi) के अन्तिम राजा कक्क को पराजित किया और कल्याणी राजधानी पर चालुक्य (सोलंकी) वंश का राज्य स्थापित किया। इसने परमार राजा मीख से युद्ध किया था।
- 2. जयसिंह द्वितीय – राजा तल्प के पश्चात् इस वंश का प्रसिद्ध सम्राट् जयसिंह द्वितीय था। इसने जैन धर्म को त्यागकर शिवमत धारण किया। इसने कल्याणी नगर को बसाया और राजधानी बनाई। इसका परमार शासक तथा चोलवंश शासक राजेन्द्र प्रथम से युद्ध हुआ।
- 3. विक्रमादित्य षष्ठ – कल्याणी के सोलंकी शासकों में यह सम्राट् सबसे प्रसिद्ध हुआ। इसने मैसूर के होयसल वंश के शासक तथा चोलवंश के शासक राजेन्द्र द्वितीय को पराजित किया। इसके दरबार में बल्हण और विज्ञानेश्वर जैसे प्रसिद्ध विद्वान् थे। (सम्भवतः जाट इतिहास पृ० 86 ले० रामसरूप जून साहब ने इसी का नाम अहुमल लिखा है)।
- 4. विक्रमादित्य षष्ठ के बाद इस वंश के सब शासक दुर्बल थे। इस राज्य के सब प्रान्त धीरे-धीरे स्वतन्त्र हो गये। इस वंश का अन्तिम राजा सुवेश्वर था जिसको देवगिरि (ओरंगाबाद प्रदेश) के यादव वंश के शासक ने सन् 1190 ई० में हराया और उसके राज्य पर अधिकार कर लिया। (यादव वंश = जाटवंश)। इस तरह कल्याणी के सोलंकी वंश का शासन समाप्त हो गया।
अहलावत शासकों के बड़े कार्य –
इस वंश के शासक बड़े और युद्धप्रिय थे जिन्होंने छठी शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक और दसवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक दक्षिण में अपने सम्मान, गौरव और प्रधानता को स्थिर रखा।
उन्होंने हर्षवर्धन जैसे शक्तिशाली सम्राट् को हराया और दक्षिण के वंशों चीर, चोल,
1. तारीख हिन्दुस्तान (उर्दू) पृ० 278.2. तारीख हिन्दुस्तान (उर्दू) पृ० 279-280 पर।नोट – चोल, पांड्य और पल्ल्व तीनों जाट गोत्र (वंश) हैं।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-205
राष्ट्रकूट, पांड्य, पल्लव, होयसल और परमार आदि के शासकों को कई बार नीचा दिखाया। ईरान आदि देशों से व्यापार जलपोतों से किये। ये शिल्पकला के बड़े प्रिय थे। अजन्ता व अलोरा की गुफाओं की बहुत सी चित्रकारी इन्हीं के शासन में की गईं। ये गुफायें इनके राज्य में थीं। इन्होंने कई प्रसिद्ध व सुन्दर मन्दिर अपने राज्य में बनवाये। जैसे – बादामी में विष्णु मन्दिर, मीगोती में शिवमन्दिर आदि। ये विद्याप्रेमी भी थे। बल्हण और विज्ञानेश्वर जैसे प्रसिद्ध विद्वान् इनके दरबार में रहते थे। ये लोग न्यायकारी, सच्चाईपसन्द थे और अन्याय के विरुद्ध लड़ने वाले थे।
अहलावत शासन का दक्षिण में पतन और उत्तर की तरफ आगमन
जब अहलावत वंश का दक्षिण में शासन दुर्बल हो गया तथा समाप्त हो गया, तब अहलावत वहां से चलकर उत्तरी भारत की ओर आ गये और जहां-तहां फैल गये। विक्रमादित्य षष्ठ के वंशज बाँसलदेव1 अहलावत के साथ इसी वंश की एक टोली (समूह) दक्षिण से चलकर बीकानेर राज्य की प्राचीन भूमि ददरहेड़ा2 में आकर बस गई। इसी अहलावत वंश के एक राजा गजसिंह की मृत्यु होने पर उसकी विधवा रानी अपने दो बालक बेटों जिनके नाम जून और माड़े थे, को साथ लेकर बांसलदेव के पास पहुंच गई और अपने देवर बांसलदेव के साथ विवाह कर लिया3 परन्तु उससे कोई बच्चा न हुआ। बीकानेर पर राठौर राज्य स्थापित होने से पहले ही इन अहलावत जाटों का यह संघ वहां से चलकर हरयाणा प्रान्त के भिवानी जिले के गांव कालाबड़ाला में कुछ दिन रहा। फिर वहां से चलकर रोहतक जिले में आकर बस गये। सबसे पहले यहां पर शेरिया गांव बसाया। चौ० डीघा उपनाम पेरू अहलावत ने कुछ दिन शेरिया में रहने के बाद डीघल गांव बसाया। डीघल गांव से लगा हुआ गांगटान गांव है जो डीघल का पांचवां पाना भी कह दिया जाता है। डीघल में से निकलकर ग्राम लकड़िया, धान्दलान और भम्बेवा बसे। अहलावत जाटों का सबसे बड़ा गांव डीघल है जो शुरू से ही अहलावत खाप का प्रधान गांव रहता आया है।
अहलावत खाप के 26 गांव हैं जो निम्नलिखित हैं –
1. डीघल 2. शेरिया 3. गोछी 4. धान्दलान 5. लकड़िया 6. गांगटान 7. भम्बेवा 8. बरहाना गूगनाण 9. बरहाना मिलवाण। ये सब अहलावत गोत्र के गांव हैं। इनके अतिरिक्त्त अहलावत जाटों के कई-कई परिवार गांव 10. महराना 11. दुजाना 12. बलम में आबाद हैं जो कि अहलावत खाप के गांव हैं। खाप के और गांव 13. सूण्डाना 14. कबूलपुर 15. बिरधाना 16. चमनपुरा 17. मदाना कलां 18. मदाना खुर्द 19. छोछी 20. कुलताना 21. दीमाना 22. पहरावर 23. सांपला 24, खेड़ी 25. नयाबास 26. गढ़ी।
यहां पर आने वाले अहलावत संघ में अहलावत गोत्र के ओलसिंह, पोलसिंह, ब्रह्मसिंह व जून बड़े प्रसिद्ध व्यक्ति थे जिन्होंने यहां के गांव बसाने में विशेष भाग लिया। उनकी प्रसिद्धि के कारण उनके नाम से ओहलाण, पहलाण, ब्रह्माण व जून गोत्र चले। जिला रोहतक में ओहलाण गोत्र के गांव सांपला, खेड़ी, गढ़ी और नयाबास हैं। ब्रह्माण गोत्र के गांव गुभाणा और
1,3. जाट इतिहास पृ० 87 व इंग्लिश अनुवाद पृ० 70, 89 लेखक ले० रामसरूप जून।2,3. क्षत्रिय जातियों का उत्थान, पतन एवं जाटों का उत्कर्ष पृ० 363 लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।3. जाट इतिहास उर्दू पृ० 206-207 लेखक ठा० संसारसिंह।नोट – ददरहेड़ा बीकानेर के निकट है।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-206
खरकड़ी हैं। सांपला गढ़ी से ओहलाण गोत्र के जाटों ने बिजनौर में पहुंचकर वहां रतनपुर गांव बसाया।
अहलावत गोत्र के कुछ और गांव निम्नलिखित हैं – जिला रोहतक में बहलम्भा आधा, इसका निकास डीघल गांव से है। इस बहलम्भा गांव के अहलावतों ने खरकड़ा गांव बसाया। गांव बोहर, माड़ौधी और हुमायूंपुर में कई-कई परिवार अहलावत जाटों के हैं।
जिला जींद में गांव रामगढ (पीड़धाना), प्रेमगढ़ (खेड़ा), बहबलपुर, लजवाना खुर्द, छान्यां (फतेहगढ़) और कई परिवार रामकली में हैं।
जिला करनाल में बबैल गांव है।
देहली प्रान्त में चिराग दिल्ली, पहाड़ी धीरज में अहलावत जाटों के काफी परिवार हैं।
राजस्थान व पंजाब प्रान्त में भी अहलावत जाट कई स्थानों पर आबाद हैं।
उत्तरप्रदेश में अहलावत जाटों के कई गांव हैं। जिला मेरठ में दौराला, कंडेरा, वलीदपुर,
जिला मुजफ्फरनगर में जीवना, रायपुरनंगली, भैसी, बुपाड़ा,
जिला बिजनौर में बाकरपुर, धारुवाला, जालपुर, पावटी, अखलासपुर, कबूलपुर, किरतपुर, बाहुपुर, शहजादपुर आदि गांव अहलावतों के हैं। इनमें से कई गांवों का निकास डीघल गांव से है जो अपने आपको डीघलिया कहलाने का गर्व रखते हैं।

